मंगलवार, 29 मार्च 2022

आवरी माता मंदिर

 आवरी माता का मंदिर -   आवरी माता का मंदिर हिंदुओं का प्रसिद्ध मंदिर माना जाता है। आवरी माता का मंदिर राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के भदेसर के समिप स्थित है। आवरी मााता का मंदिर चित्तौड़गढ़ से 40 किलोमीटर की दूरी पर आसावरा गांव में स्थित है। माना जाता है कि यह मंदिर 750 वर्ष सेे भी अधिक पुराना हे।


यह भव्य मंदिर पहाड़ियों और झरनों के बीच खूबसूरती से बचा हुआ है। आवरी माता मंदिर आसावरा गांव को समर्पित है। यह मंदिर एक तालाब के पास स्थित है। जो माना जाता है कि यह पवित्र है। और वहां पर भगवान हनुमान की सुंदर मूर्ति है। माता की मूर्ति मंदिर के मुख्य मध्य भाग में स्थित है। और मूर्ति को सुंदर फूलों और सोने के गहनों के साथ सजाया जाता है।


ऐसा माना जाता है। कि भदेसर गांव जमींदार का नाम आवाजी था। आवाजी के 7 पुत्र व एक पुत्री थी। आवाजी ने अपने पुत्रों से अपनी पुत्री के विवाह के लिए सुयोग्य देखने के लिए कहा।  सातों भाइयों ने अलग-अलग जगह विवाह तय कर दिया। कैसर ने अपनी कुलदेवी की आराधना की और इस समस्या को ठीक करने का आग्रह किया। विवाह के दिन धरती फटी केसर उस में समा गई। पुत्री को धरती में समाते हुए देख पिता ने अपनी पुत्री का पल्लू पकड़ लिया। इससे नाराज केसर ने अपने पिता को श्राप दे दिया था। आवाजी ने श्राप मुक्ति होने के लिए मंदिर का निर्माण करवाया। जो आज आवरी माता के नाम से विख्यात है।



आवरी माता मंदिर की विशेषता है। कि इस मंदिर मे पुलिया व पक्षाघात (विकलांग, तोतली, ) पैरालाइस रोगी इस मंदिर मैं। पूजा अर्चना करने से ठीक हो जाते हैं। और उन्हें यहां पर रहना पड़ता है। और शरीर का जो अंग बीमारी से ठीक होता है। उस अंग के जैसा सोने व चांदी का अंग बना कर माता को अर्पण किया जाता है। और माता के थाल प्रसादी आदि चढ़ावा करते हैं। भक्त आवरी माता के दैनिक आरती में भाग लेते हैं। जो पवित्र आरती देखने के लिए भक्त बड़ी संख्या में वहां उपस्थित होते हैं।

आवरी माता मंदिर में सभी त्योहार मनाए जाते हैं। विशेषकर दुर्गा पूजा नवरात्रा और हनुमान जयंती के त्यौहार पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। वह मेले लगाए जाते हैं। और मंदिर को फूलों व लाइट डेकोरेशन से सजाया जाता है। मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण श्रद्धालुओं के दिल और दिमाग को शांति प्रदान कराता है।

सोमवार, 28 मार्च 2022

Jatla mata temple

शक्तिपीठ जातला माता मंदिर

जातला माता मंदिर के बारे में कहा जाता हैै। कि पांडवों ने पांडोली और कौरवों ने कश्मोर बसाया था । और इन दोनों गांव के बीच में वटवृक्ष के नीचे बैैठकर इनकी सभा होती थी। और उसी स्थान के वहां जातला माता का मंदिर स्थापित है।


 बहुत लोगों का मानना है। कि जातला माता मंदिर में लकवा रोगियों को मंदिर परिसर में रात्रि विश्राम कराने के साथ ही समीप स्थित वट वृक्ष की परिक्रमा कराने से निश्चय ही लाभ होता है। इस वट वृक्ष में सभी तरह के लोग परिक्रमा लगा सकते हैं। अतः वटवृक्ष के अंदर से निकलने की जगह बहुत कम होने पर भी आसानी से छोटे बड़े सभी तरह के लोग इसमें से निकल सकते हैं। यही इस वट वृक्ष का चमत्कार है।

वटवृक्ष


M.K. वीरवाल चित्तौड़गढ़-  जातला माता का मंदिर चित्तौड़गढ़ से 9 किलोमीटर दूर कपासन उदयपुर रोड पर पांडोली गांव में स्थित है। जहां की मान्यता है। कि माता के दर्शन मात्र से लकवा रोगी ठीक हो जाता है। आमतौर पर लकवा रोगी चिकित्सकों का सहारा लेकर अपनी बीमारी को दूर करने का प्रयास करते हैं लेकिन मेवाड़ के शक्तिपीठों में चित्तौड़गढ़ की जातला माता ऐसा स्थान है। जहां न केवल प्रदेश से बल्कि दूर दूर के और अन्य राज्यों से भी बड़ी संख्या में लकवा रोगी पहुंचकर रोग मुक्त हो जाते हैं। वर्षों पुराने माता के मंदिर में इस तरह के चमत्कार की गाथा दूर-दूर तक फैली हुई है। जिसके चलते यहां वर्ष पर्यंत लकवा रोगियों की अच्छी खासी तादाद देखने को मिलती है खासतौर पर शरदीय यह और चैत्र नवरात्रि में हजारों लोग नवरात्रि के पूरे 9 दिनों तक माता के दरबार में श्रद्धालु और लकवा रोगी यहां आकर स्वयं को धन्य होने की अनुभूति करते हैं। कई श्रद्धालुओं की मान्यता है। कि लकवा रोगियों को मंदिर परिसर में रात्रि विश्राम कराने के साथ ही समीप स्थित वट वृक्ष की परिक्रमा कराने से निश्चय ही लाभ होता है। इसी भावना के अनुसार बड़ी संख्या में लकवा रोगी और उनके परिजन इस नवरात्रि में भी ज्यादा माता रानी की शरण में रहते हैं।

श्री जातला माता

अनेक श्रद्धालु रोगी मुक्त होने के बाद मुर्गे का उतारा कर मंदिर परिसर में उसे छोड़ देते हैं। और कई श्रद्धालु अपनी मन्नत पूरी होने पर कबूतर को दाना और माता रानी के श्रृंगार का सामान चढ़ावा करते हैं। वहीं कई भक्त यहां मां प्रसादी का आयोजन करते हैं। रोगियों के अलावा बड़ी संख्या में अन्य श्रद्धालु भी जातला माता के दर्शन के लिए हजारों की संख्या में नवरात्रि के दिनों में पहुंचते हैं। जिसके फलस्वरूप यहां नवरात्रि मेले की भी अनुभूति रही।

आज के इस आधुनिक और वैज्ञानिक युग में जहां चिकित्सक लकवा रोगियों का उपचार करने में महीनों लगा देते हैं। वही जातला माता के दर्शन मात्र से लकवा रोग दूर हो जाता हे। एक चमत्कार ही कहा जा सकता है। इसका मैं स्वयं उदाहरण हु।

 ( मैं जब 4 या 5 साल का था तब मुझे बोलने में कठिनाई थी मेने उसके बाद माता रानी को ठीक होने की बोला और कहा कि जब मैं सही से बोलने लग जाऊं तो मैं आपके चांदी की जीभ चढ़ाउंगा और कुछ ही महीनों में मैं सही से बोलने लग गया। ) 

Jai ho jatla mata ki🙏🙏🙏

ऐसा माता का मंदिर जहां स्वय अग्नि प्रकट होती है

 एक अनोखा मंदिर जहां खुद देवी मां करती है अग्नि स्नान 

ईडाणा माता का अग्नि स्नान

हमारे भारत देश में ऐसे बहुत से मंदिर स्थापित है। जो कि अपनी शक्ति और चमत्कार से जाने जाते हैं। इन मंदिरों की लोकप्रियता इतनी होती है। कि दूर-दूर से लोग तो आते ही है। लेकिन विदेशों से भी लोग भगवान के दर्शनों के लिए आते हैं। ऐसे में आज हम आपको एक ऐसे चमत्कारी मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। जो बहुत ही पुराना व जिसकी कहानी बड़ी ही महत्वपूर्ण मानी जाती है।

ईडाणा माता


यह मंदिर राजस्थान में ईडाणा माता मंदिर के नाम से प्रख्यात हे। यहां पर मां के चमत्कारी दरबार की महिमा बहुत ही अपरंपार है। जिसे देखने दूर-दूर से लोग यहां आते हैं। वैसे तो आपने बहुत सारे चमत्कारी स्थल के बारे में सुना होगा। लेकिन ईडाणा माता मंदिर बिल्कुल ही अलग और चौंकाने वाला स्थान है। यह स्थान राजस्थान के उदयपुर शहर से 60 किलोमीटर दूर अरावली की पहाड़ियों के बीच में स्थित है। ईडाणा मां का यह दरबार बिल्कुल खुले एक चौक में स्थित है। और इस मंदिर का नाम ईडाणा उदयपुर मेवल की महारानी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

माता के दर्शन

इस मंदिर में भक्तों की खास आस्था बनी हुई है। क्योंकि यहां मान्यता है। कि लकवा से ग्रसित रोगी यहां मां के दरबार में आकर मां के दर्शन से ठीक हो जाते हैं। इस मंदिर की हैरान करने वाली बात यह है। कि यहां स्थित देवी ईडाणा मां की प्रतिमा से हर महीने में दो बार अग्नि प्रज्वलित होती है। और इस चमत्कार को देखने के लिए मां के दरबार में भक्तों की भीड़ लगी रहती है। लेकिन अगर बात करें इस अग्नि की तो आज भी कोई पता नहीं लगा पाया की अग्नि कैसे जलती है।
ईडाणा माता मंदिर में अग्नि स्नान का पता लगते ही आसपास के गांवों से बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ लग जाती है। मंदिर के पुजारी के अनुसार ईडाणा माता पर अधिक भार होने पर माता स्वयं ज्वाला देवी का रूप धारण कर लेती है। यह अग्नि धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करती है। और इसकी लपेट 10 से 20 फीट तक पहुंच जाती है। लेकिन इस अग्नि के पीछे खास बात यह भी है। कि आज तक श्रंगार के अलावा किसी अन्य चीज को कोई आंच तक नहीं आई है। भक्त इसे देवी का अग्नि स्नान कहते हैं। और इसी अग्निस्नान के कारण यहां माता का मंदिर नहीं बन पाया ऐसा माना जाता है। कि जो भी भक्त इस अग्नि के दर्शन कर लेता है उसकी हर इच्छा मनोकामना पूरी हो जाती है। यहां भक्त अपनी इच्छा पूर्ण होने पर त्रिशूल चढ़ाते हैं। और साथ ही जिन लोगों के संतान नहीं होती है। वह दंपति यहां झूला चढ़ाने आते हैं। खासकर इस मंदिर के प्रति लोगों का विश्वास है। कि लकवा से ग्रसित रोगी मां के दरबार में आकर लकवा रोगी हो जाते हैं।

Chittorgarh fort

 चित्तौड़गढ़ किला



चित्तौड़गढ़ किला राजस्थान के इतिहास प्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ में स्थित है। यह किला 25.53 अक्षांश और 74.39 देशांतर पर स्थित है। किला जमीन से लगभग 500 फुट ऊंचाई वाली एक पहाड़ी पर बना हुआ है। परंपरा से प्रसिद्ध है। कि इसे चित्रांगद मौर्य ने बनवाया था। आठवीं शताब्दी में गुहिलवंशी बापा ने इसे हस्तगत किया कुछ समय तक यह परमारो, सोलंकीयों और चौहानों के अधिकार में भी रहा था।
किंतु सन 1175 ई. के आसपास उदयपुर राज्य के राजस्थान में विलय होने तक यह प्राय गुहिल वंश युग के हाथ में ही रहा।

चित्तौड़गढ़ किले का इतिहास

चित्तौड़गढ़ किला राजपूत सूर्य के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान रखता है। या किला 7वी से 16वीं शताब्दी तक सत्ता का एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। लगभग 700 एकड़ क्षेत्र में फैला यह किला 500 फुट ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है यह माना जाता है। कि सातवीं शताब्दी में मोरी राजवंश के चित्रांगद मोरी द्वारा इसका निर्माण करवाया गया था।


राजवंशों का शासन

चित्तौड़गढ़ किले पर अनेक राजवंशों ने शासन किया था

मोरि या मौर्य       -   7वीं 8वीं शताब्दी 
प्रतिहार              -   9वी 10वीं शताब्दी 
परमार               -  10वीं 11वीं शताब्दी 
सोलंकी              -  12 वीं शताब्दी 
गोहिल और या सिसोदिया


आक्रमण

किले के लंबे इतिहास के दौरान इस पर 3 बार आक्रमण किया गया। जिसमें पहला आक्रमण सन 1303 में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा किया गया। और दूसरा आक्रमण सन 1535 में गुजरात के बहादुर शाह द्वारा किया गया। तथा तीसरा आक्रमण सन 1567 से लेकर 1568 में मुगल बादशाह अकबर द्वारा किया गया था। प्रत्येक बार यहां जोहर किया गया। इसकी प्रसिद्ध स्मारकीय विरासत की विशेषता इसके विशिष्ट मजबूत किल्ले, प्रवेश द्वार, बुर्ज, महल, मंदिर ,दुर्ग तथा जलाशय स्वयं बताते हैं, जो राजपूत वास्तुकला के उस उत्कृष्ट नमूने हैं।

प्रवेश द्वार 

चित्तौड़गढ़ किले के साथ प्रवेश द्वार मुख्य है। प्रथम प्रवेश द्वार- पैदल पोल के नाम से जाना जाता है। जिसके बाद दूसरा द्वार -भैरव पोल के नाम से जाना जाता है। तीसरा द्वार -हनुमान पोल, और चौथा द्वार -गणेश पोल, पांचवा द्वार जोली पोल, छटा द्वार लक्ष्मण पोल, तथा अंत में सातवां द्वार रामपाल के नाम से विख्यात है। जो सन 1459 में बनवाया गया था। किले की पूर्वी दिशा में स्थित प्रवेश द्वार को सूरजपोल कहा जाता है।

पर्यटन स्थल चित्तौड़गढ़ किला अनेक दर्शनीय और ऐतिहासिक स्थानों से परिपूर्ण है। यहां पर अनेक देखने लायक स्थान विद्यमान है। पाडल पोल के निकट वीर बाग सिंह का स्मारक है। महाराणा का प्रतिनिधि बनकर इसने गुजरातियों से युद्ध किया था। भैरव पुल के निकट कला और जैमल की छतरियां है। राम पोल के पास पत्ता का स्मारक पत्थर है। इस किले के अंदर और भी कई आकर्षक स्थल है। जो पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

जैसे-

कुंभा महल
पद्मिनी महल 
रत्न सिंह महल
फतेह प्रकाश महल
कालिका माता मंदिर
समाधि स्वर मंदिर
कुंभा स्वामी मंदिर
720 देवरी 
कीर्ति स्तंभ 
जैन कीर्ति स्तंभ 
गौमुख कुंड 
आदि चित्तौड़गढ़ किले पर देखने लायक स्थल है।




शुक्रवार, 25 मार्च 2022

स्वर्ण मंदिर अमृतसर

स्वर्ण मंदिर




स्वर्ण मंदिर को हरमंदिर साहिब या दरबार साहिब भी कहा जाता है।  इसके आसपास के सुंदर परिवेश और स्वर्ण की परत के कारण ही इसे स्वर्ण मंदिर कहते हैं। यह अमृतसर पंजाब में स्थित सिखों का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है।
 यह मंदिर सिख धर्म की सहनशीलता तथा स्वीकार्यता का संदेश अपनी वास्तुकला के माध्यम से प्रदर्शित करता है जिसमें अन्य धर्मों के संकेत भी शामिल किए गए हैं। दुनियाभर के सिख अमृतसर आना चाहते हैं और श्री हरमंदिर साहिब ने अपनी अरदास देकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करना चाहते हैं।

स्वर्ण मंदिर का इतिहास

सन 1589 मैं गुरु अर्जुन देव के एक सीट से शेख मियां मीर ने सरोवर के बीच में स्थित वर्तमान स्वर्ण मंदिर की नींव डाली। मंदिर के चारों ओर चार दरवाजों का प्रबंध किया गया था। यह गुरु नानक के उदार धार्मिक विचारों का प्रतीक समझा गया। मंदिर में गुरु ग्रंथ साहिब की जिसका संग्रह गुरु अर्जुन देव ने किया था, स्थापना की गई थी। सरोवर को गहरा करवाने और परिवर्तित करने का कार्य बाबू बुड्ढा नामक व्यक्ति को सौंपा गया था। और इन्हें ही ग्रंथ साहब का प्रथम ग्रंथि बनाया गया।

1757 ईस्वी में वीर सरदार बाबा दीपसिंह जी ने मुसलमानों के अधिकार से इस मंदिर को छुड़वाया, और वह उनके साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। उन्होंने अपने अधिक कटे सिर को संभालते हुए अनेक शत्रुओं को मौत के घाट उतारा। उनकी दुधारी तलवार मंदिर के संग्रहालय में सुरक्षित है। स्वर्ण-मंदिर के निकट बाबा अटलराय का गुरुद्वारा है। यह छठे गुरु हरगोविंद के पुत्र थे, और 9 वर्ष की आयु में ही संत समझे जाने लगे थे। उन्होंने इतनी छोटी सी उम्र में एक मृत शिष्य को जीवन दान देने में अपने प्राण दे दिए थे।  कहा जाता है, कि गुरुद्वारे की 9 मंजिले इस बालक की आयु की प्रतीक है। पंजाब-केसरी महाराज रणजीतसिंह ने स्वर्ण-मंदिर को एक बहुमूल्य पटमंडप दान में दिया था। जो संग्रहालय में है।

धार्मिक महत्व

स्वर्ण मंदिर की वास्तुकला हिंदू तथा मुस्लिम निर्माण कार्य के बीच एक अनोखे सौहार्द को प्रदर्शित करती है। तथा स्वर्ण मंदिर को विश्वास के सर्वोत्तम वास्तु कलात्मक नमूने के रूप में माना जा सकता है यह कई बार कहा जाता है। कि इस वास्तुकला से भारत के कला इतिहास में सिख संप्रदाय की एक स्वतंत्र वास्तुकला का सृजन हुआ है। यह मंदिर कलात्मक सौंदर्य और गहरी शांति का उल्लेखनीय संयोजन है।



स्वर्ण मंदिर की स्थापना

गुरु अर्जुन साहिब पांचवे नानक ने सिखों की पूजा के एक केंद्रीय स्थल के सृजन की कल्पना की और उन्होंने स्वयं श्री हरमंदिर साहिब की वास्तुकला की संरचना की पहले इसमें एक पवित्र तालाब (अमृतसर या अमृत सरोवर) बनाने की योजना गुरु अमरदास साहिब द्वारा बनाई गई थी जो तीसरे नानक कहे जाते हैं। किंतु गुरु रामदास साहिब ने इसे बाबा बुद्ध जी के पर्यवेक्षण में निष्पादित किया इस स्थल की भूमि मूल गांव के जमींदारों से मुफ्त या भुगतान के आधार पर पूर्व गुरु साहिबा द्वारा आयोत की गई थी या एक कस्बा स्थापित करने की योजना भी बनाई गई थी अतः सरोवर पर
निर्माण कार्य के साथ कदमों का निर्माण भी इसी के साथ 1570 ईस्वी में शुरू हुआ दोनों परियोजनाओं का कार्य 1577 ईस्वी में पूरा हुआ था

गुरु अर्जन साहिब ने लाहौर के मुस्लिम संत हजरत मियां मीर जी द्वारा इसकी आधारशिला रखवाई जो दिसंबर 1588 में रखी गई इसके निर्माण कार्य का पर्यवेक्षण गुरु अर्जन साहिब ने स्वयं किया और बाबा बुद्ध जी भाई गुरु दास जी भाई साहब जी और अन्य के समर्पित सिख बंधुओं के द्वारा उन्हें सहायता दी गई ऊंचे स्तर पर ढांचे को खड़ा करने के विपरीत गुरु अर्जन साहिब ने इसे कुछ नहीं चले स्तर पर बनाया और इसे चारों ओर से खुला रखा इस प्रकार उन्होंने एक नए धर्म सिख धर्म का संकेत सुरक्षत किया गुरु साहिब ने इसे जाति वर्ण लिंग और धर्म के आधार पर किसी भेदभाव के बिना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुगम में बनाया


स्वर्ण मंदिर का निर्माण एवं वास्तुकला

स्वर्ण मंदिर का निर्माण कार्य सितंबर 1604 में पूरा हुआ। गुरु अर्जन साहिब ने नव सुरजीत गुरु ग्रंथ साहिब (सिख धर्म की पवित्र पुस्तक) की स्थापना श्री हरमंदिर साहिब मैं की तथा बाबा बुद्ध जी को इसका प्रथम ग्रंथि अर्थात गुरु ग्रंथ साहिब का वाचक नियुक्त किया। इस कार्यक्रम के बाद अब सत का दर्जा देकर यह सिख धर्म का एक अपना तीर्थ बन गया। श्री हरमंदिर साहिब का निर्माण सरोवर के मध्य में 67 फीट के मंच पर किया गया है। यह मंदिर अपने आप में 40.5 वर्ग फीट है। उत्तर दक्षिण पूर्व और पश्चिम चारों दिशाओं में इसके दरवाजे हैं। दर्शनी ड्यूढी इसके रास्ते के सिरे पर बनी हुई है। इस आर्च के दरवाजे का प्रेम लगभग 10 फीट ऊंचा और 8 फीट 4 इंच चौड़ा है। इसके दरवाजे पर कलात्मक शैली में सजावट की गई है। यह एक रास्ते पर खुलता है। जो श्री हरमंदिर साहिब के मुख्य भवन तक जाता है। यह 208 फीट लंबा और 21 फीट चौड़ा है। इसका छोटा सा कुल 13 फीट चौड़े प्रदक्षिणा गोलाकार मार गई या परिक्रमा से जुड़ा है। यह मुख्य मंदिर के चारों ओर घूमते हुए हर की पौड़ी तक जाता है। हर की पौड़ी के प्रथम तल पर गुरु ग्रंथ साहिब की सूक्तियां पढ़ी जा सकती है। इसके सबसे ऊपर एक गुंबद (अर्थात एक गोलाकार ) संरचना है। जिस पर कमल की पत्तियों का आकार इसके आधार से जाकर ऊपर की ओर उल्टे कमल की तरह दिखाई देता है।जो अंत में सुंदर छतरी वाले एक कलश को समर्थन देता है।




आवरी माता मंदिर

  आवरी माता का मंदिर -    आवरी माता का मंदिर हिंदुओं का प्रसिद्ध मंदिर माना जाता है। आवरी माता का मंदिर राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के भदेस...