शुक्रवार, 25 मार्च 2022

स्वर्ण मंदिर अमृतसर

स्वर्ण मंदिर




स्वर्ण मंदिर को हरमंदिर साहिब या दरबार साहिब भी कहा जाता है।  इसके आसपास के सुंदर परिवेश और स्वर्ण की परत के कारण ही इसे स्वर्ण मंदिर कहते हैं। यह अमृतसर पंजाब में स्थित सिखों का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है।
 यह मंदिर सिख धर्म की सहनशीलता तथा स्वीकार्यता का संदेश अपनी वास्तुकला के माध्यम से प्रदर्शित करता है जिसमें अन्य धर्मों के संकेत भी शामिल किए गए हैं। दुनियाभर के सिख अमृतसर आना चाहते हैं और श्री हरमंदिर साहिब ने अपनी अरदास देकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करना चाहते हैं।

स्वर्ण मंदिर का इतिहास

सन 1589 मैं गुरु अर्जुन देव के एक सीट से शेख मियां मीर ने सरोवर के बीच में स्थित वर्तमान स्वर्ण मंदिर की नींव डाली। मंदिर के चारों ओर चार दरवाजों का प्रबंध किया गया था। यह गुरु नानक के उदार धार्मिक विचारों का प्रतीक समझा गया। मंदिर में गुरु ग्रंथ साहिब की जिसका संग्रह गुरु अर्जुन देव ने किया था, स्थापना की गई थी। सरोवर को गहरा करवाने और परिवर्तित करने का कार्य बाबू बुड्ढा नामक व्यक्ति को सौंपा गया था। और इन्हें ही ग्रंथ साहब का प्रथम ग्रंथि बनाया गया।

1757 ईस्वी में वीर सरदार बाबा दीपसिंह जी ने मुसलमानों के अधिकार से इस मंदिर को छुड़वाया, और वह उनके साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। उन्होंने अपने अधिक कटे सिर को संभालते हुए अनेक शत्रुओं को मौत के घाट उतारा। उनकी दुधारी तलवार मंदिर के संग्रहालय में सुरक्षित है। स्वर्ण-मंदिर के निकट बाबा अटलराय का गुरुद्वारा है। यह छठे गुरु हरगोविंद के पुत्र थे, और 9 वर्ष की आयु में ही संत समझे जाने लगे थे। उन्होंने इतनी छोटी सी उम्र में एक मृत शिष्य को जीवन दान देने में अपने प्राण दे दिए थे।  कहा जाता है, कि गुरुद्वारे की 9 मंजिले इस बालक की आयु की प्रतीक है। पंजाब-केसरी महाराज रणजीतसिंह ने स्वर्ण-मंदिर को एक बहुमूल्य पटमंडप दान में दिया था। जो संग्रहालय में है।

धार्मिक महत्व

स्वर्ण मंदिर की वास्तुकला हिंदू तथा मुस्लिम निर्माण कार्य के बीच एक अनोखे सौहार्द को प्रदर्शित करती है। तथा स्वर्ण मंदिर को विश्वास के सर्वोत्तम वास्तु कलात्मक नमूने के रूप में माना जा सकता है यह कई बार कहा जाता है। कि इस वास्तुकला से भारत के कला इतिहास में सिख संप्रदाय की एक स्वतंत्र वास्तुकला का सृजन हुआ है। यह मंदिर कलात्मक सौंदर्य और गहरी शांति का उल्लेखनीय संयोजन है।



स्वर्ण मंदिर की स्थापना

गुरु अर्जुन साहिब पांचवे नानक ने सिखों की पूजा के एक केंद्रीय स्थल के सृजन की कल्पना की और उन्होंने स्वयं श्री हरमंदिर साहिब की वास्तुकला की संरचना की पहले इसमें एक पवित्र तालाब (अमृतसर या अमृत सरोवर) बनाने की योजना गुरु अमरदास साहिब द्वारा बनाई गई थी जो तीसरे नानक कहे जाते हैं। किंतु गुरु रामदास साहिब ने इसे बाबा बुद्ध जी के पर्यवेक्षण में निष्पादित किया इस स्थल की भूमि मूल गांव के जमींदारों से मुफ्त या भुगतान के आधार पर पूर्व गुरु साहिबा द्वारा आयोत की गई थी या एक कस्बा स्थापित करने की योजना भी बनाई गई थी अतः सरोवर पर
निर्माण कार्य के साथ कदमों का निर्माण भी इसी के साथ 1570 ईस्वी में शुरू हुआ दोनों परियोजनाओं का कार्य 1577 ईस्वी में पूरा हुआ था

गुरु अर्जन साहिब ने लाहौर के मुस्लिम संत हजरत मियां मीर जी द्वारा इसकी आधारशिला रखवाई जो दिसंबर 1588 में रखी गई इसके निर्माण कार्य का पर्यवेक्षण गुरु अर्जन साहिब ने स्वयं किया और बाबा बुद्ध जी भाई गुरु दास जी भाई साहब जी और अन्य के समर्पित सिख बंधुओं के द्वारा उन्हें सहायता दी गई ऊंचे स्तर पर ढांचे को खड़ा करने के विपरीत गुरु अर्जन साहिब ने इसे कुछ नहीं चले स्तर पर बनाया और इसे चारों ओर से खुला रखा इस प्रकार उन्होंने एक नए धर्म सिख धर्म का संकेत सुरक्षत किया गुरु साहिब ने इसे जाति वर्ण लिंग और धर्म के आधार पर किसी भेदभाव के बिना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुगम में बनाया


स्वर्ण मंदिर का निर्माण एवं वास्तुकला

स्वर्ण मंदिर का निर्माण कार्य सितंबर 1604 में पूरा हुआ। गुरु अर्जन साहिब ने नव सुरजीत गुरु ग्रंथ साहिब (सिख धर्म की पवित्र पुस्तक) की स्थापना श्री हरमंदिर साहिब मैं की तथा बाबा बुद्ध जी को इसका प्रथम ग्रंथि अर्थात गुरु ग्रंथ साहिब का वाचक नियुक्त किया। इस कार्यक्रम के बाद अब सत का दर्जा देकर यह सिख धर्म का एक अपना तीर्थ बन गया। श्री हरमंदिर साहिब का निर्माण सरोवर के मध्य में 67 फीट के मंच पर किया गया है। यह मंदिर अपने आप में 40.5 वर्ग फीट है। उत्तर दक्षिण पूर्व और पश्चिम चारों दिशाओं में इसके दरवाजे हैं। दर्शनी ड्यूढी इसके रास्ते के सिरे पर बनी हुई है। इस आर्च के दरवाजे का प्रेम लगभग 10 फीट ऊंचा और 8 फीट 4 इंच चौड़ा है। इसके दरवाजे पर कलात्मक शैली में सजावट की गई है। यह एक रास्ते पर खुलता है। जो श्री हरमंदिर साहिब के मुख्य भवन तक जाता है। यह 208 फीट लंबा और 21 फीट चौड़ा है। इसका छोटा सा कुल 13 फीट चौड़े प्रदक्षिणा गोलाकार मार गई या परिक्रमा से जुड़ा है। यह मुख्य मंदिर के चारों ओर घूमते हुए हर की पौड़ी तक जाता है। हर की पौड़ी के प्रथम तल पर गुरु ग्रंथ साहिब की सूक्तियां पढ़ी जा सकती है। इसके सबसे ऊपर एक गुंबद (अर्थात एक गोलाकार ) संरचना है। जिस पर कमल की पत्तियों का आकार इसके आधार से जाकर ऊपर की ओर उल्टे कमल की तरह दिखाई देता है।जो अंत में सुंदर छतरी वाले एक कलश को समर्थन देता है।




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